रविवार, 19 फ़रवरी 2023

Dulaiwali kahani/ Bang mahila ki kahani dulaiwali/ बंग महिला की कहानी ‘दुलाईवाली’

 बंग महिला की कहानी ‘दुलाईवाली’ का मुख्य बिंदु और सारांश :


हिन्दी की प्रथम कहानीकार राजेन्द्र बाला घोष (छद्दम नाम- बंग महिला) श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष का जन्म 1882 ई० में बनारस में और मृत्यु

1912 में हुआ था।




बंग महिला घोष द्वारा लिखित ‘दुलाईवाली’ कहानी 1907 की ‘सरस्वती’ पत्रिका

के  भाग-8, संख्या 5 में प्रकाशित हुई थी।

कहानी की प्रमुख विशेषता यह है कि यह रचना हास्य-सृजन के परम्परा से हटकर मौलिकता और कल्पनाशीलता का अनोखा वर्णन है।

दुलाईवाली कहानी को प्रथम मौलिक कहानी माना गया है।

कला कि दृष्टि से यह अत्यंत प्रौढ़ कहानी है।

राजेन्द्र बाला घोष ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रेरणा से हिन्दी में लेखन प्रारंभ किया।

इस कहानी को लेखिका ने हास्य कहानी के रूप में लिखा है।

काशी और उसके आस-पास के जन-जीवन तथा स्त्री-पुरुष की सोच, उनके मनोभावों का स्वाभाविक चित्रण किया है।

कहानी की शुरुआत काशी के दशाश्वमेध घाट से शुरू होकर इलाहबाद में खत्म होती है।



कहानी के पात्र ;


वंशीधर- मुख्यपात्र जो इलाहबाद का निवासी है।


नवल किशोर- वंशीधर का ममेरा भाई जो हसमुख व्यक्ति है।


जानकी देई- वंशीधर की पत्नी एक गृहस्त महिला है।


सीता- बंशीधर की साली है।


लाठीवान- ट्रेन में एक यात्री  


अन्य पात्र- नवलकिशोर कि पत्नी का नाम नहीं है। वंशीधर की सास, साला, साली, इक्केवाला आदि।


दुलाईवाली’ (कहानी) का सारांश:


‘दुलाईवाली’ का अर्थ है। कपड़े का मोटा चादर जिसे नवविवाहिता औरतें घूँघट लेती है। काशी जी के दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके एक मनुष्य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौलिया की  तरफ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्यारह बजे थे। गोदौलिया की बायीं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्ड में बहुत अँधेरा था; पर ऊपर की जगह मनुष्य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में उसने हाथ की चीजें रख दी और, सीता! सीता! कहकर पुकारने लगा।


“क्या है?” कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई, तब उस पुरुष ने कहा, “सीता! जरा अपनी बहन को बुला ला।”


“अच्छा!”, कहकर सीता गई और कुछ देर में एक नवीना स्त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, “लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा।”


इस बात को सुनकर स्त्री कुछ आश्चर्ययुक्त होकर और झुँझलाकर बोली, “आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सबेरे भैया से कह देते। तुम तो जानते हो कि मुँह से कह दिया, बस छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत जाना नहीं हो सकता!’


“तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मुगलसराय से साथ ही इलाहबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस अब करना ही क्या है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाँध-बूँधकर, घंटे भर में खा-पीकर चली चलो। जब हम तुम्हें  विदा कराने आए ही हैं तब कल के बदले आज ही सही।”


“हाँ, यह बात है! नवल जो चाहें करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, जरुर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी।”


“क्यों? किस बात से?”


“उनकी हँसी से और किससे! हँसी-ठठ्ठा भी राह में अच्छी लगती है। उनकी हँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज मैं चौक में बैठी पुड़ियाँ काढ़ रही थी, कि इतने में न जाने कहाँ से आकर नवल चिल्लाने लगे, ए बुआ! ए बुआ! देखो तुम्हारी बहू पुड़ियाँ खा रही है।” मैं तो मारे सरम से मर गई। हाँ, भाभी जी ने बात हँसी में उड़ा दी। वे बोलीं, “खाने-पहनने के लिए तो आयी ही है।” पर मुझे उनकी हँसी बहुत बुरी लगी।”


      “बस इसी से तुम उनके साथ नहीं जाना चाहती? अच्छा चलो, मैं नवल से कह दूँगा कि यह बेचारी कभी रोटी तक तो खाती नहीं, पूड़ी क्यों खाने लगी।”


इतना कहकर बंशीधर कोठरी के बाहर चले आए और बोले, “मैं तुम्हारे भैया के पास जाता हूँ। तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना।”


इतना सुनते ही जानकी देई की आँखें भर आयीं। और आसाढ़-सावन की झड़ी लग गई।


बंशीधर इलाहबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है। स्त्री को विदा कराने आये हैं। ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवा और कोई नहीं है। नवलकिशोर इनके दूर के नाते में ममेरा भाई हैं। पर दोनों में मित्रता का ख्याल अधिक है। दोनों में गहरी मित्रता है। दोनों एक जान दो कालिब हैं।


उसी दिन बंशीधर का जाना स्थिर हो गया। सीता, बहन के संग जाने के लिए रोने लगी। माँ रोती-धोती लड़की की विदा की सामग्री इकठ्ठा करने लगी। जानकी देई भी रोती-रोती तैयार होने लगी। कोई चीज भूलने पर धीमी आवाज से माँ को याद भी दिलाती गई। एक बजने पर स्टेशन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाए? ससुराल वालों की अवस्था अब आगे जैसी नहीं थी कि दो चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसे वाले के यहाँ नौकर चाकरों के सिवा और भी दो चार खुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है; सो भी इस समय कहीं गयी है। साले राम की तबियत अच्छी नहीं। वे हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं। तिस पर भी आप कहने लगे, मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूँ, नजदीक तो है।”


बंशीधर बोले, “नहीं, नही तुम क्यों तकलीफ करोगे? मैं ही जाता हूँ।” जाते-जाते बंशीधर विचारने लगे कि इक्के की सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक नहीं होती, क्योंकि एक तो इतने ऊँचे पर चढ़ना पड़ता है; दूसरे पराये पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूँ। उसमे सब तरह का आराम रहता है। पर जब गाड़ी वाले ने डेढ़ रूपया किराया माँगा, तब बंशीधर ने कहा, “चलो इक्का ही सही। पहुँचने से काम है। नवलकिशोर तो यहाँ से साथ हैं नहीं, इलाहबाद में देखा जाएगा।”


बंशीधर इक्का ले आये, और जो कुछ असबाब था, इक्के पर रख कर आप भी बैठ गए। जानकी देई बड़ी विकलता से रोटी हुई इक्के पर जा बैठी। पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ? यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं। इक्का जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया वैसे जानकी की रूलाई भी कम होती गई। सिकरौल के स्टेशन के पास पहुँचते-पहुँचते जानकी अपनी आँखे अच्छी तरह पोछ चुकी थी।


दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि अचानक बंशीधर की नजर अपनी धोती पर पड़ी; और ‘अरे एक बात तो हम भूल ही गए।’ कहकर पछता से उठे। इक्के वाला ने कान बचाकर जानकी जी से पूछा, “क्या हुआ? क्या कोई जरुरी चीज भूल आये?”


“नहीं, एक देशी धोती पहनकर आना था; सो भूलकर विलायती ही पहिन आये। नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न! वे बंगालियों से भी बढ़ गए हैं। देखेंगे तो दो-चार सुनाये बिना न रहेंगे। और, बात भी ठीक है। नाहक विलायती चीजें मोल लेकर क्यों रुपये की बर्बादी की जाए। देशी लेने में भी दाम लगेगा सही; पर रहेगा तो देश ही में।”


जानकी जरा भौहें टेढ़ी करके बोली, ऊंह धोती तो धोती, पहिनने से काम। क्या यह बुरी है? इतने में स्टेशन के कुलियों ने आ घेरा। बंशीधर एक कुली करके चले इतने में इक्के वाले ने कहा, “इधर से टिकट लेते जाइए पुल के उस पार तो ड्योढ़े दर्जे (उच्चवर्ग) का टिकट मिलता है।”


      बंशीधर फिर कर बोले, “अगर मैं ड्योढ़े दर्जे का ही टिकट लू तो?” इक्के वाला चुप हो रहा। “इक्के का सवारी देखकर इसने ऐसा कहा,” यह कहते हुए बंशीधर आगे बढ़ गए। यथा समय रेल पर बैठकर बंशीधर राजघाट पार करके मुगलसराय पहुंचे। वहाँ पुल लाँघकर दूसरे प्लेटफार्म पर जा बैठे। आप नवल से मिलने की ख़ुशी में प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक टहलते रहे। देखते-देखते गाड़ी का धुँआ दिखलाई पड़ा। मुसाफिर अपनी-अपनी गठरी सँभालने लगे। रेल देवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गम्भीरता से आ खड़ी हुई। बंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शुरू से आखिर तक देख गए। पर नवल का कहीं पता नहीं। बंशीधर फिर सभी गाड़ियों को दोहरा गए, तेहरा गए, भीतर घुस-घुसकर एक-एक डिब्बे को देखा किन्तु नवल न मिले। अंत को आप खिजला उठे, और सोचने लगे कि मुझे तो वैसी चिठ्ठी लिखी, और आप न आया। मुझे अच्छा उल्लू बनाया। अच्छा! जाएँगे कहाँ? भेंट होने पर समझ लूँगा। सबसे अधिक सोच तो इस बात का था कि जानकी सुनेगी तो ताने पर ताना मारेगी। पर अब सोचने का समय नहीं। रेल की बात ठहरी, बंशीधर झट गए और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में बिठाया। वह पूछने लगी, नवल की बहु कहाँ है?” वह नहीं आये, कोई अटकाव हो गया,” कहकर आप बगल वाले कमरे में जा बैठे। टिकट ड्योढ़े का था; पर ड्योढ़े दर्जे का कमरा कलकत्ते से आनेवाले मुसाफिरों से भरा था। इसलिए तीसरे दर्जे में बैठना पड़ा। जिस गाड़ी में बंशीधर बैठे थे उसके सब कमरों में मिलाकर कुल दस-बारह स्त्री-पुरुष थे। समय पर गाड़ी छूटी। नवल की बातें, और न-जाने क्या अगड़-बगड़ सोचते गाड़ी कई स्टेशन पार करके मिर्जापुर पहुँची।”


      मिर्जापुर में पेटराम की शिकायत शुरू हुई। उसने सुझाया कि इलाहबाद पहुँचने में अभी देरी है। चलने के झंझट में अच्छी तरह उसकी पूजा किये बिना ही बंशीधर ने बनारस छोड़ा था। इसलिए आप झट प्लेटफोर्म पर उतरे, और पानी के बोम्बे से हाथ-मुँह धोकर, एक खोंचेवाले से थोड़ी सी ताजी पूड़ियाँ और मिठाई लेकर निराले में बैठ आपने उन्हें ठिकाने पहुँचाया। पीछे से जानकी की सुध आयी। सोचा कि पहले पूछ लें, तब कुछ मोल लेंगे, क्योंकि स्त्रियाँ नटखट होती हैं। वे रेल पर खाना पसंद नहीं करतीं। पूछने पर वही बात हुई। तब बंशीधर लौटकर अपने कमरे में आ बैठे। यदि वे चाहते तो इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते; क्योंकि अब भीड़ कम हो गई थी। पर उन्होंने कहा, थोड़ी देर के लिए कौन बखेड़ा करे।


बंशीधर अपने कमरे में बैठे तो दो-एक मुसाफिर अधिक दिख पड़े। आगे वालों में से एक उतर भी गया था। जो लोग थे सब तीसरे दर्जे के योग्य जान पड़ते थे; अधिक सभ्य तो बंशीधर ही थे। उनके कमरे के पास वाले कमरे में एक भले घर की स्त्री बैठी थी। वह बेचारी सर से पैर तक ओढ़े, सर झुकाए एक हाथ लंबा घूँघट काढ़े, कपड़े की गठरी-सी बनी बैठी थी। बंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भद्र पुरुष के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय बितावेंगे। एक-दो करके तीसरी घंटी बजी तब वह स्त्री कुछ अकचकाकर, थोडा-सा मुँह खोल, जंगले से बाहर देखने लगी। ज्योंही गाड़ी छूटी, वह मानो काँप-सी उठी। रेल का देना-लेना तो हो ही गया था। अब उसको किसी की क्या परवाह? वह अपनी स्वाभाविक गति से चलने लगी। प्लेटफार्म पर भीड़ भी नहीं थी। केवल दो-चार आदमी रेल की अंतिम विदाई तक खड़े थे। जबतक स्टेशन दिखलाई दिया तब तक वह बेचारी बाहर ही देखती रही। फिर अस्पष्ट स्वर में रोने लगी। उस कमरे में तीन-चार प्रौढ़ ग्रामीण स्त्रियाँ भी थीं। एक, जो उसके पास ही थी, कहने लगी, “अरे इनकर मनई तो नाहीं आइलेन। हो देखहो, रोवल कर थईन।”


दूसरी, “अरे दूसर गाड़ी में बैठा होंईहें।”


पहली, दुर बौरही! ई जनानी गाड़ी थेड़े है।”


दूसरी, “अरे तऊ हो भलू तो कहू।” कहकर दूसरी भद्र महिला से पूछने लगी, “कौन गाँव उतरबू बेटा! मीरजैपूरा चढ़ी हऊ न।” इसके जवाब में उसने जो कहा सो वह न सुन सकी।


तब पहली बोली, “हट हम पूछीला न। कहाँ ऊतरबू हो? आँय ईलाहाबास?”


दूसरी, “ईलाहबास कौन गाँव हौ गोइयाँ?”


पहली, “अरे नाही जनंलू? पैयाग जी, जहाँ मनई मकर नहाए जाला।”


दूसरी, “भला पैयाग जी काहे न जानीथ; ले कहै के नाहीं, तोहरे पंच के धरम से चार दंई नहाय चुकी हँई। ऐसों हो सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नाहाय गइ रहे।


पहली, “आवे जाय के तो सब अऊते जात बटले बाटेन। फुन यह साइत तो बिचारो विपत में न पड़ल बाटिली। हे हम पंचा हइ; राजघाट टिकस कटऊली; मोंगल के सरायैं उतरलीह; हो द पुन चढ़लीह”।


दूसरी, ऐसे एक दांई हम आवत रहे। एक मिली औरो मोरे संघे रही। दकौने टिसनीया पर उकर मलिकवा उतरे से कि जुरतंइहैं गड़िया खुली। अब भइया ऊगरा फाड़-फाड़ नरियाय, ए साहब, गड़िया खड़ी कर! ए साहेब, गड़िया तंनी खड़ी कर! भला गड़िया दहिनाती काहै के खड़ी होय?


पहली, उ मेहररुवा बड़ी उजबक रहल। भला केहू के चिल्लाये से रेलीऔ कहूं खड़ी होला?


इसकी इस बात पर कुल कमरे वाले हंस पड़े। अब जितने पुरुष-स्त्रियां थीं। एक से एक अनोखी बातें कहकर अपने-अपने तजरुबे बयान करने लगीं। बीच-बीच में उस अकेली अबला की स्थिति पर भी दुःख प्रकट करती जाती थीं।


तीसरी स्त्री बोली,  टीक्कसिया पल्ले बाय क नांही। हे सहेबवा सुनि तो कलकत्ते तांई ले मसुलिया लेई। अरे-इहो तो नांही कि दूर से आवत रहले न, फरागत के बदे उतर लेन।


चौथी, हम तो इनके संगे के आदमी के देखबो न किहो गोइयां।


तीसरी, हम देखे रहली हो, मजेक टोपी दिहले रहलेन को।


इस तरह उनकी बेसिर-पैर की बातें सुनते-सुनते बंशीधर ऊब उठे। तब वे उन स्त्रियों से कहने लगे, तुम तो नाहक उन्हें और भी डरा रही हो। जरूर इलाहाबाद तार गया होगा और दूसरी गाड़ी से वे भी वहां पहुंच जाएंगे। मैं भी इलाहाबाद ही जा रहा हूं। मेरे संग भी स्त्रियां हैं। जो ऐसा ही है तो दूसरी गाड़ी के आने तक मैं स्टेशन ही पर ठहरा रहूंगा, तुम लोगों में से यदि कोई प्रयाग उतरे तो थोड़ी देर के लिए स्टेशन पर ठहर जाना। इनको अकेला छोड़ देना उचित नहीं। यदि पता मालूम हो जाएगा तो मैं इन्हें इनके ठहरने के स्थान पर भी पहुंचा दूंगा।


बंशीधर की इन बातों से उन स्त्रियों की वाक्-धारा दूसरी ओर बह चली, हां, यह बात तो आप भली कही। नाहीं भइया! हम पंचे काहिके केहुसे कुछ कही। अरे एक के एक करत न बाय तो दुनिया चलत कैसे बाय? इत्यादि ज्ञानगाथा होने लगी। कोई-कोई तो उस बेचारी को सहारा मिलते देख खुश हुए और कोई-कोई नाराज भी हुए, क्यों, सो मैं नहीं बतला सकती। उस गाड़ी में जितने मनुष्य थे, सभी ने इस विषय में कुछ-न-कुछ कह डाला था। पिछले कमरे में केवल एक स्त्री जो फरासीसी छींट की दुलाई ओढ़े अकेली बैठी थी, कुछ नहीं बोली। कभी-कभी घूंघट के भीतर से एक आंख निकालकर बंशीधर की ओर ताक देती थी और, सामना हो जाने पर, फिर मुंह फेर लेती थी। बंशीधर सोचने लगे कि, यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालूम होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं।


गाड़ी इलाहाबाद के पास पहुंचने को हुई। बंशीधर उस स्त्री को धीरज दिलाकर आकाश-पाताल सोचने लगे। यदि तार में कोई खबर न आयी होगी तो दूसरी गाड़ी तक स्टेशन पर ही ठहरना पड़ेगा। और जो उससे भी कोई न आया तो क्या करूंगा? जो हो गाड़ी नैनी से छूट गयी। अब साथ की उन अशिक्षिता स्त्रियों ने फिर मुंह खोला, क भइया, जो केहु बिना टिक्कस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओंका ई नाहीं चाहत रहा कि मेहरारू के तो बैठा दिहलेन, अउर अपुआ तउन टिक्कस लेई के चल दिहलेन! किसी-किसी आदमी ने तो यहां तक दौड़ मारी की रात को बंशीधर इसके जेवर छीनकर रफूचक्कर हो जाएंगे। उस गाड़ी में एक लाठीवाला भी था, उसने खुल्लिम खुल्ला कहा, का बाबू जी! कुछ हमरो साझा!


इसकी बात पर बंशीधर क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने इसे खूब धमकाया। उस समय तो वह चुप हो गया, पर यदि इलाहाबाद उतरता तो बंशीधर से बदला लिये बिना न रहता। बंशीधर इलाहाबाद में उतरे। एक बुढ़िया को भी वहीं उतरना था। उससे उन्होंने कहा कि उनको भी अपने संग उतार लो। फिर उस बुढ़िया को उस स्त्री के पास बिठाकर आप जानकी को उतारने गये। जानकी से सब हाल कहने पर वह बोली, अरे जाने भी दो किस बखेड़े में पड़े हो। पर बंशीधर ने न माना। जानकी को और उस भद्र महिला को एक ठिकाने बिठाकर आप स्टेशन मास्टर के पास गये। बंशीधर के जाते ही वह बुढ़िया, जिसे उन्होंने रखवाली के लिए रख छोड़ा था, किसी बहाने से भाग गयी। अब तो बंशीधर बड़े असमंजस में पड़े। टिकट के लिए बखेड़ा होगा। क्योंकि वह स्त्री बे-टिकट है। लौटकर आये तो किसी को न पाया। अरे ये सब कहां गयीं? यह कहकर चारों तरफ देखने लगे। कहीं पता नहीं। इस पर बंशीधर घबराये, आज कैसी बुरी साइत में घर से निकले कि एक के बाद दूसरी आफत में फंसते चले आ रहे हैं। इतने में अपने सामने उस ढुलाईवाली को आते देखा। तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गयी है, इतना कहना था कि दुलाई से मुंह खोलकर नवलकिशोर खिलखिला उठे।


अरे यह क्या ? सब तुम्हारी ही करतूत है! अब मैं समझ गया। कैसा गजब तुमने किया है? ऐसी हंसी मुझे नहीं अच्छी लगती। मालूम होता कि वह तुम्हारी ही बहू थी। अच्छा तो वे गयीं कहां?


वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं। तुम भी चलो।


नहीं मैं सब हाल सुन लूंगा तब चलूंगा। हां, यह तो कहे, तुम मिरजापुर में कहां से आ निकले?


मिरजापुर नहीं, मैं तो कलकत्ते से, बल्कि मुगलसराय से, तुम्हारे साथ चला आ रहा हूं। तुम जब मुगलसराय में मेरे लिए चक्कर लगाते थे तब मैं ड्योढ़े दर्जे में ऊपरवाले बेंच पर लेटे तुम्हारा तमाशा देख रहा था। फिर मिरजापुर में जब तुम पेट के धंधे में लगे थे, मैं तुम्हारे पास से निकल गया पर तुमने न देखा, मैं तुम्हारी गाड़ी में जा बैठा। सोचा कि तुम्हारे आने पर प्रकट होऊंगा। फिर थोड़ा और देख लें, करते-करते यहां तक नौबत पहुंची। अच्छा अब चलो, जो हुआ उसे माफ करो।


यह सुन बंशीधर प्रसन्न हो गये। दोनों मित्रों में बड़े प्रेम से बातचीत होने लगी। बंशीधर बोले, मेरे ऊपर जो कुछ बीती सो बीती, पर वह बेचारी, जो तुम्हारे-से गुनवान के संग पहली ही बार रेल से आ रही थी, बहुत तंग हुई, उसे तो तुमने नाहक रूलाया। बहुत ही डर गयी थी।


नहीं जी! डर किस बात का था? हम-तुम, दोनों गाड़ी में न थे?


हां पर, यदि मैं स्टेशन मास्टर से इत्तिला कर देता तो बखेड़ा खड़ा हो जाता न?


अरे तो क्या, मैं मर थोड़े ही गया था! चार हाथ की दुलाई की बिसात ही कितनी?


इसी तरह बातचीत करते-करते दोनों गाड़ी के पास आये। देखा तो दोनों मित्र-बधुओं में खूब हंसी हो रही है। जानकी कह रही थी-अरे तुम क्या जानो, इन लोगों की हंसी ऐसी ही होती है। हंसी में किसी के प्राण भी निकल जाएं तो भी इन्हें दया न आवे। खैर, दोनों मित्र अपनी-अपनी घरवाली को लेकर राजी-खुशी घर पहुंचे और मुझे भी उनकी यह राम-कहानी लिखने से छुट्टी मिली।


लेबल: , , , ,

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ