सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

गेहूं और गुलाब : रामवृक्ष बेनीपुरी

 निबंध

गेहूं और गुलाब : रामवृक्ष बेनीपुरी


गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है।


गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं – पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस?


जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्‍या खाए, क्‍या पिए?

माँ के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी – कुछ न छुट पाए उससे !


गेहूँ – उसकी भूख का काफला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है? गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ !


मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं – गेहूँ के लिए।


बेचारा गुलाब – भरी जवानी में सि‍सकियाँ ले रहा है। शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है।


किंतु, चाहे कच्‍चा चरे या पकाकर खाए – गेहूँ तक पशु और मानव में क्‍या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्‍यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी।


यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थीं।


उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और चक्‍की में पीस-कूट रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्‍त नहीं हुआ, उनकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग की बनाई तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े ! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, वंशी भी बनाई।


रात का काला-घुप्‍प परदा दूर हुआ, तब यह उच्छवसित हुआ सिर्फ इसलिए नहीं कि अब पेट-पूजा की समिधा जुटाने में उसे सहूलियत मिलेगी, बल्कि वह आनंद-विभोर हुआ, उषा की लालिमा से, उगते सूरज की शनै: शनै: प्रस्‍फुटित होनेवाली सुनहली किरणों से, पृथ्‍वी पर चम-चम करते लक्ष-लक्ष ओसकणों से! आसमान में जब बादल उमड़े तब उनमें अपनी कृषि का आरोप करके ही वह प्रसन्‍न नहीं हुआ। उनके सौन्‍दर्य-बोध ने उसके मन-मोर को नाच उठने के लिए लाचार किया, इन्‍द्रधनुष ने उसके हृदय को भी इन्‍द्रधनुषी रंगों में रँग दिया!


मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की।


गेहूँ की आवश्‍यकता उसे है, किंतु उसकी चेष्‍टा रही है गेहूँ पर विजय प्राप्‍त करने की। उपवास, व्रत, तपस्‍या आदि उसी चेष्‍टा के भिन्‍न-भिन्‍न रूप रहे हैं।


जब तक मानव के जीवन में गेहूँ और गुलाब का सम-तुलन रहा वह सुखी रहा, आनंदमय रहा !


वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। उसके श्रम के साथ संगीत बँधा हुआ था और संगीत के साथ श्रम।


उसका साँवला दिन में गायें चराता था, रात में रास रचाता था।


पृथ्‍वी पर चलता हुआ वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश पर उसकी नजरें गड़ी थीं, उसे याद था कि उसके पैर मिट्टी पर हैं।


किंतु धीरे-धीरे यह सम-तुलन टूटा।


अब गेहूँ प्रतीक बन गया हड्डी तोड़नेवाले, उबानेवाले, थकानेवाले, नारकीय यंत्रणाएँ देनेवाले श्रम का – वह श्रम, जो पेट की क्षुधा भी अच्‍छी तरह शांत न कर सके।


और गुलाब बन गया प्रतीक विलासिता का – भ्रष्‍टाचार का, गंदगी और गलीज का। वह विलासिता – जो शरीर को नष्‍ट करती है और मानस को भी !


हवा, पानी की तरह इफरात हो जायँ। बीज, खाद, सिंचाई, जुताई के ऐसे तरीके और किस्‍म आदि तो निकलते ही जा रहे हैं जो गेहूँ की समस्‍या को हल कर दें !


प्रचुरता – शारीरिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों की प्रचुरता – की ओर आज का मानव प्रभावित हो रहा है !


प्रचुरता? – एक प्रश्‍न चिह्न!


क्‍या प्रचुरता मानव को सुख और शांति‍ दे सकती है?


‘हमारा सोने का हिंदोस्‍तान’ – यह गीत गाइए, किंतु यह न भूलिए कि यहाँ एक सोने की नगरी थी, जिसमें राक्षसता निवास करती थी! जिसे दूसरे की बहू-बेटियों को उड़ा ले जाने में तनिक भी झिझक नहीं थी।


राक्षसता – जो रक्‍त पीती थी, जो अभक्ष्‍य खाती थी, जिसके अकाय शरीर था, दस शिर थे, जो छह महीने सोती थी !


गेहूँ बड़ा प्रबल है – वह बहुत दिनों तक हमें शरीर का गुलाम बनाकर रखना चाहेगा! पेट की क्षुधा शांत कीजिए, तो वह वासनाओं की क्षुधा जाग्रत कर बहुत दिनों तक आपको तबाह करना चाहेगा।


तो, प्रचुरता में भी राक्षसता न आवे, इसके लिए क्‍या उपाय?


अपनी मनोवृत्तियों को वश में करने के लिए आज का मनोविज्ञान दो उपाय बताता है – इंद्रियों के संयमन की ओर वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करने की।


संयमन का उपदेश हमारे ऋषि-मुनि देते आए हैं। किंतु, इसके बुरे नतीजे भी हमारे सामने हैं – बड़े-बड़े तपस्वियों की लंबी-लंबी तपस्‍याएँ एक रम्‍भा, एक मेनका, एक उर्वशी की मुस्‍कान पर स्‍खलित हो गईं!


आज भी देखिए। गांधीजी के तीस वर्ष के उपदेशों और आदेशों पर चलनेवाले हम तपस्‍वी किस तरह दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं।


इसलिए उपाय एकमात्र है – वृत्तियों को उर्ध्‍वगामी करना !


कामनाओं को स्‍थूल वासनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठाकर सूक्ष्‍म भावनाओं की ओर प्रवृत्त कीजिए।


शरीर पर मानस की पूर्ण प्रभुता स्‍थापित हो – गेहूँ पर गुलाब की !


गेहूँ के बाद गुलाब – बीच में कोई दूसरा टिकाव नहीं, ठहराव नहीं !


गेहूँ की दुनिया खत्‍म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।


जो आर्थिक रूप से रक्‍त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्‍त बहाती रही !


अब दुनिया आने वाली है जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया -मानस का संसार – सांस्‍कृतिक जगत्।


अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्‍थूल शारीरिक आवश्‍यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्‍म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?


जब गेहूँ से हमारा पिण्‍ड छूट जायगा और हम गुलाब की दुनिया में स्‍वच्‍छंद विहार करेंगे !


गुलाब की दुनिया – रंगों की दुनिया, सुगंधों की दुनिया!


भौंरे नाच रहे, गूँज रहे; फुल सूँघनी फुदक रही, चहक रही! नृत्‍य, गीत – आनंद, उछाह!


कहीं गंदगी नहीं, कहीं कुरूपता नहीं, आंगन में गुलाब, खेतों में गुलाब, गालों पर गुलाब खिल रहे, आँखों से गुलाब झाँक रहा !


जब सारा मानव-जीवन रंगमय, सुगंधमय, नृत्‍यमय, गीतमय बन जायगा! वह दिन कब आयेगा !


वह आ रहा है – क्‍या आप देख नहीं रहे हैं ! कैसी आँखें हैं आपकी। शायद उन पर गेहूँ का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है। पर्दे को हटाइए और देखिए वह अलौकिक स्‍वर्गिक दृश्‍य इसी लोक में, अपनी इस मिट्टी की पृथ्‍वी पर ही!


शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर !

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